श्रीकांत का जन्म आन्ध्र प्रदेश के एक गांव में हुआ था। श्रीकांत के माता पिता किसान थे और श्रीकांत अंधा पैदा हुआ था जिसके कारण उसके माता-पिता हमेशा ही उसे हीन नजर से देखते थे। श्रीकांत के माता-पिता ने कभी भी श्रीकांत को अपना बेटा नहीं समझा वह हर एक प्रकार का कष्ट अपने इस अंधे बेटे को देते थे और हमेशा यही बोलते थे कि अंधा होने से अच्छा तो यही है कि यह मर जाता । आपने अक्सर सुना होगा कि अगर भगवान एक और हमें दुख देते हैं तो दूसरी तरफ सुख भी देते हैं श्रीकांत के माता-पिता उसे जितना नफरत करते थे उससे ज्यादा उसकी दादी उसे प्यार करती थी ऐसा लगता था कि 3 अकाउंट में उसकी दादी का जीवन बसा हुआ है। श्रीकांत के दादी कभी उसे अंधा महसूस नहीं करवाती थी।
गांव वालों ने भी श्रीकांत को ठुकरा दिया था।
श्रीकांत अंधा था जिसके कारण होते हमेशा दूसरे बच्चों से अलग महसूस कराया जाता था जब श्रीकांत दूसरे बच्चों के साथ मैदान में खेलने के लिए जाता था तो उसे वहां से हटा दिया जाता था। यह सब तकलीफें देखने के बाद उसके चाचा ने उसके माता-पिता को हैदराबाद के ब्लाइंड स्कूल में डालने का लिए सुझाव दिया। तब श्रीकांत को घर से लगभग 400 किलोमीटर दूर एक अलग ही परिवेश में भेज दिया गया जहाँ उसे घर की बहुत याद आती थी।
यही वह क्षण था जिसमे उसका सब कुछ बदल गया। उसने अपने आप से यह वचन लिया कि उसके रास्ते में जो कुछ भी आयेगा उन सब में वह अपना उत्कृष्ट देगा। इसके लिए उसने बहुत मेहनत की और फिर कभी पीछे मुड़ कर नहीं देखा। अपने स्कूल में दसवीं की परीक्षा में उसने प्रथम स्थान प्राप्त किया। उसका बहुत मन था कि वह साइंस में आगे की पढ़ाई करे पर उसे मज़बूरन आर्ट्स स्ट्रीम चुनना पड़ा। भारतीय शिक्षा पद्धति में नेत्रहीन बच्चों के लिए साइंस विषय था ही नहीं। लेकिन हमेशा की तरह श्रीकांत ने बाधाओं को नहीं देखा। उसने एक कोर्ट में एक मामला दायर किया और तब तक लड़ते रहे जब तक सभी भारतीय छात्रों के लिए पूरा कानून ही बदल नहीं गया। अपनी बोर्ड परीक्षा उसने 98 फीसदी नंबरों से पास की।
श्रीकांत का भाग्य इतना ज्यादा खराब था कि उसे कोई भी चीज जल्दी और आसानी से नहीं मिलता इसके लिए उसे कठोर परिश्रम करना पड़ता था और उसने कठोर परिश्रम किया भी वह इंजीनियरिंग की पढ़ाई देश के अच्छे इंस्टिट्यूट से करना चाहते थे परंतु नेत्रहीनता की वजह से आईआईटी में उनका एडमिशन नहीं हो पाया। अस्वीकार किये जाने के बाद उन्होंने विश्व की प्रतिष्ठित मेसाचुसेट्स इंस्टिट्यूट ऑफ़ टेक्नोलॉजी में आगे की पढ़ाई के लिए आवेदन किया। वह पहले ऐसे नेत्रहीन छात्र थे जिन्हें एमआईटी में पढ़ने का अवसर दिया गया था।
जब श्रीकांत ने अपनी पढ़ाई पूरा कर लिया तो उसने कॉर्पोरेट सेक्टर में नौकरी करने का निश्चय किया और भारत लौट आये। बाद में उन्होंने हैदराबाद में समन्वय नामक एक गैर सरकारी संगठन की स्थापना की। जिसमेंं छात्रों को व्यक्तिगत जरुरत के अनुसार और विकलांग छात्रों के लिए लक्ष्य आधारित सेवाएं प्रदान क्या जाता था ।
आपको बता दें कि आज इस कंपनी में इको-फ्रेंडली उत्पाद बनाये जाते हैं जैसे-ऐरेका लीफ प्लेट्स, कप्स, ट्रेज और डिनर वेयर, बीटल प्लेट्स और डिस्पोजेबल प्लेट्स, चम्मच, कप्स आदि। बाद में इसमें इन्होंने गोंद और प्रिंटिंग उत्पाद को भी शामिल कर लिया। श्रीकांत के बिज़नेस मॉडल और क्रियान्वयन की सारी जिम्मेदारी रवि मंथ की थीं जिन्होंने न केवल श्रीकांत की कंपनी में इन्वेस्ट किया था बल्कि वह उनके मेंटर भी थे। आज उनकी कंपनी में 150 दिव्यांग लोग काम कर रहे हैं। उनकी सालाना बिक्री 70 लाख के पार हो चुकी है। रतन टाटा ने भी श्रीकांत को फण्ड प्रदान किया है। 2016 में श्रीकांत को बेस्ट इंटरप्रेन्योर के अवार्ड से नवाज़ा भी गया है।
श्रीकांत कहते है कि पूरी दुनिया के लोग मेरा मजाक बनाते थे कहते थे कि यह आंधा क्या कर पाएगा। मेरी यह उपलब्धियां ही उन्हें मेरा जवाब है। अगर आप जीवन की लड़ाई के विजेता बनना चाहते हैं तो अपने आप को खराब से खराब समय में ध्यान रखना चाहिए सफलता खुद ब खुद आपके पास चली आएगी।
आपको बता दें कि श्रीकांत 24 साल की उम्र में ही बहुत कुछ हासिल कर लिया श्रीकांत ने कहा कि मैं चाहता था कि मैं भारत का राष्ट्रपति बने लेकिन ऐसा नहीं हुआ।